Nagpur/नागपुर/ हमारे यहां तो "माता प्रथमो गुरुः" का विचार है और गुरु एक दिन के लिए नहीं होता है इसी विचार को और समृद्ध करने हेतु शिक्षा गुरु दीक्षांत में ‘मातृदेव भव’ का उपदेश देते है। परंतु इसी एक दिन के मदर्स डे वाले विचारों के कारण चार-चार बच्चों की मां अकेली रोटी पकाती अथवा वृद्धाश्रम में रहती। हम सभी मां के चरणों में अपनी सर्वाधिक श्रद्धा अर्पित करते हैं। माता के स्वरूप में ही देवत्व के प्रथम दर्शन होते हैं। परंतु इस मदर्स डे का प्रचलन कब से और क्यों? यह विचार करना आवश्यक है।
मेरे विचार से इस प्रकार प्रचलन से वृद्धाश्रम का प्रचार होगा। लोग इससे माता-पिता को सहज वृद्धाश्रम में छोड़ेंगे। जो लोग माता-पिता को वृद्धाश्रम में छोड़ रहे हैं वे अधिक आत्म केंद्रित अनियंत्रित वैयक्तिक स्वतंत्र बन रहे हैं। उनको सर्वस्व देकर बड़े करने वाले माता-पिता आज बेघर हैं। एक तो यह माता-पिता ने संतान का लालन-पालन कैसे किया इस पर भी प्रश्न अंकन कर रहा है। इन सभी उलझनों के मध्य मेरा मन वृद्धाश्रम को बहुत ज्यादा प्रतिष्ठित करने को उचित नहीं मानता। वृद्ध अवस्था में स्वाभाविक आध्यात्मिकता स्थाई भाव होता है। अतः ऐसी स्थिति के लिए भारत में मठ मंदिर प्रतिष्ठित हैं। आज भी अनेक गृहस्थ इनमें भी निवास करते हुए जीवन के अस्तित्व से परिचित होते हुए सामाजिक कार्य कर रहे हैं। परंतु इस के विपरित वृद्धाश्रम को सहायता की आवश्यकता होती है।
वृद्धाश्रम में सेवा का विशेष प्रचलन के कारण वृद्धाश्रम में रहने वाले लोग निष्क्रिय हो रहे हैं। ऐसा भी उदाहरण है की लोग अपनी कमाई से पैसा अथवा उनके परिजन कुछ पैसा वृद्धाश्रम को देकर निवास की व्यवस्था कर रहे हैं। इस लिए भविष्य की पीढ़ी ने पहले से माता-पिता को वृद्धाश्रम में छोड़ने की तैयारी कर रखी है। और हम सभी अपने जन्मदिन, विवाह, वार्षिकी विशेष दिनों में उनको कुछ खिलाकर कुछ दान देकर समाज कार्य करने का दावा कर रहे है। इस कारण वृद्धाश्रमों की संख्या बढ़ रही है। इस का अर्थ समाज में हमारे बुजुर्ग वर्ग समाज के लिए अनउपयोगी होते जा रहे हैं। परोक्ष में देखें तो हमारे समाज को सुसंकृत, सुसभ्य बना सकने वाले बुजुर्ग पीढ़ी को पंगु बनाने की पूरी व्यवस्था बना रखे हैं। शायद ये वर्ग सन्यास लेकर मठ-मंदिर में जाते तो स्वयं सुसंस्कृत होने के साथ-साथ समाज को भी परिस्कृत करने में योगदान देते ऊपर से पुत्र-पौत्रों से कोई द्रोह नहीं रहता। मुझे लगता है समाज में एक भी व्यक्ति वृद्धाश्रम नहीं जाना चाहिए हमें इसके लिए प्रयास करना चाहिए। और धीरे-धीरे वृद्धाश्रमों की संख्या घटाने के साथ जिसके माता-पिता वृद्धाश्रम जाते हैं उनका सामाजिक बहिस्कार के साथ कानूनी अपराध दर्ज किया जाना चाहिए। वर्तमान वृद्धाश्रम में रहने वाले बुजुर्ग में छोटे बच्चों को पढ़ाना, समाज में आध्यात्मिकता की प्रवृत्ति विकास, मठ-मंदिर आदि आध्यात्मिक केंद्रों का देख रख आदि ऐसे अनेक सामाजिक कार्यों को प्रवृत्त किया जाना आवश्यक है।
भारतीय परंपराओं को अनुसरण करते हुए प्रत्येक मनुष्य को अपने जीवन में वनाप्रस्त एवं सन्यास का आचरण करना चाहिए। यह समय तो आत्मा परमात्मा का मिलन के साथ आत्मबोध का समय है अतः इस कालखंड में व्यक्ति परावलंबी नहीं हो सकता। वृद्धाश्रम में व्यक्ति पंगु, असहाय बनाता है। अतः सनातन संस्कृति के मुलपिंड हमारे मठ-मंदिरों को पुनः अपने स्थिति में लाने के लिए हमे प्रयास करना चाहिए जिससे हमारे माता-पिता की वृद्धावस्था की स्वाभाविक आवश्यकताताओं की पूर्ति सहज हो सकेगी और हमरा यह प्रयास उनके लिए सच्ची श्रद्धा एवं भक्ति की अभिव्यक्ति होगी।
लेखक एवं सामाजिक चिंतक
डॉ. भरत कुमार पंडा
सहायक प्रोफेसर,शिक्षा विभाग,
महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा।