- द्वितिय सरसंघचालक राष्ट्र ऋषि श्रीमाधवसदाशिव गोलवलकरजी की जयंती के अवसर पर उन्हें पूरा विश्व याद कर रहा है।
जीवन परिचय (श्री गुरूजी) श्रीमाधव सदाशिव राव गोलवलकर "श्री गुरूजी" का जन्म माघ कृष्ण एकादशी (विजया एकादशी) विक्रम संवत् 1962 तथा दिनांक 19 फरवरी 1906 को प्रातः के साढ़े चार बजे नागपुर के ही श्री रायकर के घर में हुआ। उनका नाम माधव रखा गया। परन्तु परिवार के सारे लोग उन्हें मधु नाम से ही सम्बोधित करते थे। बचपन में उनका यही नाम प्रचलित था। ताई-भाऊजी की कुल 9 संतानें हुई थीं। उनमें से केवल मधु ही बचा रहे और अपने माता-पिता की आशा का केन्द्र बने।
श्री गुरूजी जी का विद्यार्थी जीवन
मधु जब मात्र दो वर्ष के थे तभी से उनकी शिक्षा प्रारम्भ हो गयी थी। पिताश्री भाऊजी जो भी उन्हें पढ़ाते थे, उसे वे सहज ही कंठस्थ कर लेते थे। बालक मधु में कुशाग्र बुद्धि, ज्ञान की लालसा, असामान्य स्मरण शक्ति जैसे गुणों का समुच्चय बचपन से ही विकसित हो रहा था। सन् 1919 में उन्होंने 'हाई स्कूल की प्रवेश परीक्षा' में विशेष योग्यता दिखाकर छात्रवृत्ति प्राप्त की। इण्टरमीडिएट की परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद माधवराव के जीवन में एक नये दूरगामी परिणाम वाले अध्याय का प्रारम्भ सन् 1924 में बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय में प्रवेश के साथ हुआ। सन् 1926 में उन्होंने बी.एससी. और सन् 1928 में एम.एससी. की परीक्षाएं भी प्राणिविज्ञान विषय में प्रथम श्रेणी के साथ उत्तीर्ण कीं। इस तरह उनका विद्यार्थी जीवन अत्यन्त यशस्वी रहा।
विश्वविद्यालय में बिताये चार वर्षों के कालखण्ड में उन्होंने विषय के अध्ययन के अलावा "संस्कृत महाकाव्यों, पाश्चात्य दर्शन, श्री रामकृष्ण परमहंस, स्वामी विवेकानन्द की ओजपूर्ण एवं प्रेरक 'विचार सम्पदा', भिन्न-भिन्न उपासना-पंथों के प्रमुख ग्रंथों तथा शास्त्रीय विषयों के अनेक ग्रंथों का आस्थापूर्वक पठन किया। इसी बीच उनकी रुचि आध्यात्मिक जीवन की ओर जागृत हुई।
शोध कार्य से निदर्शक बनने तक का सफर
एम.एससी. की परीक्षा उत्तीर्ण करने के पश्चात् वे प्राणि-शास्त्र विषय में 'मत्स्य जीवन' पर शोध कार्य हेतु मद्रास (चेन्नई) के मत्स्यालय से जुड़ गये। इसी मद्रास-प्रवास के दौरान वे गम्भीर रूप से बीमार पड़ गये। दो माह के इलाज के बाद वे रोगमुक्त तो हुए परन्तु उनका स्वास्थ्य पूर्णरूपेण से पूर्ववत् नहीं रहा। मद्रास प्रवास के दौरान जब वे शोध में कार्यरत थे तो एक बार हैदराबाद का निजाम मत्स्यालय देखने आया। नियमानुसार प्रवेश-शुल्क दिये बिना उसे प्रवेश देने से श्री गुरूजी ने इन्कार कर दिया। आर्थिक तंगी के कारण श्री गुरूजी को अपना शोध-कार्य अधूरा छोड़ कर अप्रैल 1929 में नागपुर वापस लौटना पड़ा।नागपुर आकर भी उनका स्वास्थ्य ठीक नहीं रहा। इसके साथ ही उनके परिवार की आर्थिक स्थिति भी अत्यन्त खराब हो गयी थी। इसी बीच बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय से उन्हें निदर्शक (demonstrator) पद पर सेवा करने का प्रस्ताव मिला। 16 अगस्त सन् 1931 को श्री गुरूजी ने बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के प्राणि-शास्त्र विभाग में निदर्शक का पद संभाल लिया। चूँकि यह अस्थायी नियुक्ति थी। इस कारण वे प्रायः चिन्तित भी रहा करते थे।
विद्यार्थियों के स्नेह से मिला श्री गुरूजी नाम
अपने विद्यार्थी जीवन में भी माधव राव अपने मित्रों के अध्ययन में उनका मार्गदर्शन किया करते थे और अब तो अध्यापन उनकी आजीविका का साधन ही बन गया था। उनके अध्यापन का विषय यद्यपि प्राणि-विज्ञान था, विश्वविद्यालय प्रशासन ने उनकी प्रतिभा पहचान कर उन्हें बी.ए. की कक्षा के छात्रों को अंग्रेजी और राजनीति शास्त्र भी पढ़ाने का अवसर दिया। अध्यापक के नाते माधव राव अपनी विलक्षण प्रतिभा और योग्यता से छात्रों में इतने अधिक अत्यन्त लोकप्रिय हो गये कि उनके छात्र उनको गुरुजी के नाम से सम्बोधित करने लगे।
द्वितिय सरसंघचालक के रूप में श्री गुरूजी
डाक्टर जी के बाद श्री गुरुजी संघ के द्वितिय सरसंघचालक बने और उन्होंने यह दायित्व 1973 की 5 जून तक अर्थात लगभग 33 वर्षों तक संभाला। ये 33 वर्ष संघ और राष्ट्र के जीवन में अत्यंत महत्वपूर्ण रहे। 1942 का भारत छोडो आंदोलन, 1947 में देश का विभाजन तथा खण्डित भारत को मिली राजनीतिक स्वाधीनता, विभाजन के पूर्व और विभाजन के बाद हुआ भीषण रक्तपात, हिन्दू विस्थापितों का विशाल संख्या में हिन्दुस्थान आगमन, कश्मीर पर पाकिस्तान का आक्रमण।
सबसे पहले डॉ. हेडगेवार के द्वारा काशी हिन्दू विश्वविद्यालय भेजे गए नागपुर के स्वयंसेवक भैयाजी दाणी के द्वारा श्री गुरूजी संघ के सम्पर्क में आये और उस शाखा के संघचालक भी बने। 1937 में वो नागपुर वापस आ गए। नागपुर में श्री गुरूजी के जीवन में एक दम नए मोड़ का आरम्भ हो गया। 1948 की 30 जनवरी को गांधीजी की हत्या, उसके बाद संघ-विरोधी विष-वमन, हिंसाचार की आंधी और संघ पर प्रतिबन्ध का लगाया जाना, भारत के संविधान का निर्माण और भारत के प्रशासन का स्वरूप व नितियों का निर्धारण, भाषावार प्रांत रचना, 1962 में भारत पर चीन का आक्रमण, पंडित नेहरू का निधन, 1965 में भारत-पाक युद्ध, 1971 में भारत व पाकिस्तान के बिच दूसरा युद्ध और बंगलादेश का जन्म, हिंदुओं के अहिंदूकरण की गतिविधियाँ और राष्ट्रीय जीवन में वैचारिक मंथन आदि अनेकविध घटनाओं से व्याप्त यह कालखण्ड रहा। डॉ. हेडगेवार के सानिध्य में उन्होंने एक अत्यन्त प्रेरणादायक राष्ट्र समर्पित व्यक्तित्व को देखा। किसी आप्त व्यक्ति के द्वारा इस विषय पर पूछने पर उन्होंने कहा-
"मेरा रुझान राष्ट्र संगठन कार्य की और प्रारम्भ से है। यह कार्य संघ में रहकर अधिक परिणामकारिता से मैं कर सकूँगा, ऐसा मेरा विश्वास है। इसलिए मैंने संघ-कार्य में ही स्वयं को समर्पित कर दिया। मुझे लगता है स्वामी विवेकानन्द के तत्वज्ञान और कार्यपद्धति से मेरा यह आचरण सर्वथा सुसंगत है।"1938 के पश्चात संघ कार्य को ही उन्होंने अपना जीवन कार्य मान लिया। डॉ. हेडगेवार के साथ निरन्तर रहते हुवे अपना सारा ध्यान संघ कार्य पर ही केंद्रित किया।
संघ के विशुद्ध और प्रेरक विचारों से राष्ट्रजीवन के अंगोपांगों को अभिभूत किये बिना सशक्त, आत्मविश्वास से परिपूर्ण और सुनिश्चित जीवन कार्य पूरा करने के लिए सक्षम भारत का खड़ा होना असंभव है, इस जिद और लगन से उन्होंने अनेक कार्यक्षेत्रों को प्रेरित किया। विश्व हिंदू परिषद्, विवेकानंद शिला स्मारक, अखिल भारतीय विद्दार्थी परिषद्, भारतीय मजदूर संघ, वनवासी कल्याण आश्रम, शिशु मंदिरों आदि विविध सेवा संस्थाओं के पीछे श्री गुरुजी की ही प्रेरणा रही है। राजनीतिक क्षेत्र में भी डॉ. श्यामाप्रसाद मुखर्जी को उन्होंने पं. दिनदयाल उपाध्याय जैसा अनमोल हीरा सौंपा।
5 जून, 1973 को इन राष्ट्रऋषी का निधन हुआ।