- अब फैसले से राज्यों को आरक्षण पर अपने हिसाब से कानून बनाने का मौका मिल सकेगा।
- उच्चतम न्यायालय के सात न्यायधीशों की संविधान पीठ ने गुरुवार को एक ऐतिहासिक फैसला दिया।
नई दिल्ली/सुप्रीम कोर्ट ने अनुसूचित जातियों के आरक्षण में उप-वर्गीकरण का फैसला सुनाया है। इस फैसले की देशभर में चर्चा हो रही है। सर्वोच्च अदालत की संविधान पीठ ने 6:1 के बहुमत से सुनाए ऐतिहासिक फैसले में अनुसूचित जातियों के लिए तय आरक्षण में उप-वर्गीकरण की अनुमति दे दी है। इससे अब तक पूरी तरह हाशिये पर रहे समूहों को व्यापक फायदा मिलेगा। 2004 में भी शीर्ष अदालत ने माना था कि आरक्षण के उद्देश्य से अनुसूचित जातियों का उप-वर्गीकरण समानता के अधिकार का उल्लंघन होगा।
अब इस फैसले पर देश के तमाम राजनीतिक दलों की प्रतिक्रियाएं आ रही हैं। लोजपा (आर) के अध्यक्ष चिराग पासवान ने कहा है कि वह सर्वोच्च न्यायालय से आग्रह करती है कि फैसले का पुर्नविचार किया जाए। वहीं कर्नाटक के मुख्यमंत्री सिद्धरमैया ने इसे ‘ऐतिहासिक’ करार दिया।
अनुसूचित जातियों का उप-वर्गीकरण क्या है?
अदालत के सामने राज्यों ने तर्क दिया है कि अनुसूचित जातियों में कुछ ऐसे लोग हैं जिन्हें आरक्षण के बावजूद अन्य अनुसूचित जातियों की तुलना में बहुत कम प्रतिनिधित्व मिला है। अनुसूचित जातियों के भीतर यह असमानता कई रिपोर्टों में भी सामने आई है और इसे मुद्दे को हल करने के लिए विशेष कोटा तैयार किया गया है। आंध्र प्रदेश, पंजाब, तमिलनाडु और बिहार में सबसे अति पिछड़े दलितों के लिए विशेष कोटा शुरू किया गया था। 2007 में, बिहार ने अनुसूचित जातियों के भीतर पिछड़ी जातियों की पहचान करने के लिए महादलित आयोग का गठन किया।
तमिलनाडु में अनुसूचित जाति कोटे के अंतर्गत अरुंधतियार जाति को तीन प्रतिशत कोटा दिया गया है, क्योंकि न्यायमूर्ति एम.एस. जनार्थनम की रिपोर्ट में कहा गया था कि राज्य में अनुसूचित जाति की आबादी 16% होने के बावजूद उनके पास केवल 0-5% नौकरियां हैं। 2000 में, आंध्र प्रदेश विधानमंडल ने 57 अनुसूचित जातियों को उप-समूहों में पुनर्गठित करने और शैक्षणिक संस्थानों और सरकारी नौकरियों में 15% अनुसूचित जाति कोटा को उनकी जनसंख्या के अनुपात में बांटने का कानून पारित किया। हालांकि, इस कानून को वर्ष 2005 में सर्वोच्च न्यायालय के उस फैसले में असंवैधानिक घोषित कर दिया गया था।
पंजाब में भी ऐसे कानून हैं जो अनुसूचित जाति कोटे में वाल्मीकि और मजहबी सिखों को वरीयता देते हैं। इसे सर्वोच्च अदालत में चुनौती दी गई और अंततः ताजा निर्णय इसी के चलते आया।
एससी आरक्षण में उप-वर्गीकरण का पूरा मामला क्या है?
उच्चतम न्यायालय के सात न्यायधीशों की संविधान पीठ ने गुरुवार को एक ऐतिहासिक फैसला दिया। इसमें कहा गया कि राज्य को सरकारी नौकरियों में आरक्षण देने के लिए अनुसूचित जातियों का उप-वर्गीकरण करने का अधिकार है। फैसले का मतलब है कि राज्य एससी श्रेणियों के बीच अधिक पिछड़े लोगों की पहचान कर सकते हैं और कोटे के भीतर अलग कोटा के लिए उन्हें उप-वर्गीकृत कर सकते हैं।
यह फैसला भारत के प्रधान न्यायाधीश (सीजेआई) डीवाई चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली सात सदस्यीय संविधान पीठ ने सुनाया है। इसके जरिए 2004 में ईवी चिन्नैया मामले में दिए गए पांच जजों के फैसले को पलट दिया। बता दें कि 2004 के निर्णय में कहा गया था कि एससी/एसटी में उप-वर्गीकरण नहीं किया जा सकता है।
इस मामले की सुनवाई में सीजेआई डीवाई चंद्रचूड़, जस्टिस बीआर गवई, जस्टिस विक्रम नाथ, जस्टिस बेला एम त्रिवेदी, जस्टिस पंकज मित्तल, जस्टिस मनोज मिश्रा और जस्टिस सतीश चंद्र शर्मा शामिल रहे। पीठ ने इस मामले पर तीन दिनों तक सुनवाई की थी और बाद 8 फरवरी, 2024 को अपना फैसला सुरक्षित रख लिया था। पीठ 23 याचिकाओं पर सुनवाई कर रही थी, जिनमें से मुख्य याचिका पंजाब सरकार ने दायर की थी। इस याचिका में पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय के 2010 के फैसले को चुनौती दी गई है। इस मामले को 2020 में पंजाब राज्य बनाम दविंदर सिंह मामले में पांच जजों वाली पीठ ने सात जजों वाली पीठ को सौंप दिया था। पांच जजों वाली पीठ ने पाया कि ईवी चिन्नैया बनाम आंध्र प्रदेश फैसले पर दोबारा विचार करने की जरूरत है। बता दें कि वरिष्ठ अधिवक्ताओं की ओर से प्रतिनिधित्व किए गए राज्यों ने ईवी चिन्नैया मामले में फैसले की समीक्षा की मांग की थी। साल 2004 के फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि राज्यों के पास आरक्षण देने के लिए अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति की उप-वर्गीकरण करने का अधिकार नहीं है।
अब सुप्रीम कोर्ट का क्या फैसला आया है और इसका असर क्या होगा?
सुप्रीम कोर्ट ने बहुमत से दिए एक फैसले में कहा कि राज्यों के पास अधिक वंचित जातियों के उत्थान के लिए अनुसूचित जातियों में उप-वर्गीकरण करने की शक्तियां हैं। शीर्ष अदालत ने कहा कि कोटा के लिए एससी में उप-वर्गीकरण का आधार राज्यों द्वारा मानकों और आंकड़ों के आधार पर उचित ठहराया जाना चाहिए।
वहीं, न्यायमूर्ति बीआर गवई ने अलग दिए फैसले में कहा कि राज्यों को एससी, एसटी में क्रीमी लेयर की पहचान करनी चाहिए और उन्हें आरक्षण के दायरे से बाहर करना चाहिए। बता दें कि चार न्यायाधीशों ने अपने-अपने फैसले लिखे जबकि न्यायमूर्ति गवई ने अलग फैसला दिया। ताजा फैसला उन राज्यों के लिए बेहद अहम साबित होगा जो प्रमुख अनुसूचित जातियों की तुलना में आरक्षण के बावजूद सीमित प्रतिनिधित्व वाली कुछ अन्य जातियों को आरक्षण का व्यापक लाभ देना चाहते हैं। कोर्ट के इस तथ्य पर मुहर लगाई है कि अनुसूचित जातियां एक समरूप वर्ग नहीं हो सकतीं।
अब फैसले से राज्यों को आरक्षण पर अपने हिसाब से कानून बनाने का मौका मिल सकेगा। उप-वर्गीकरण रणनीति का पंजाब में वाल्मीकि और मजहबी सिखों, आंध्र प्रदेश में मडिगा के अलावा बिहार में पासवान, यूपी में जाटव और तमिलनाडु में अरुंधतियार समुदाय पर सीधा असर पड़ेगा।
उप-वर्गीकरण पर सुप्रीम कोर्ट ने पहले क्या कहा?
इस मामले में शीर्ष कोर्ट की पीठ ने 8 फरवरी 2024 को अपना फैसला सुरक्षित रखा था। उस समय अदालत ने कहा कि उप-वर्गीकरण की अनुमति न देने से ऐसी स्थितियां उत्पन्न होंगी, जिसमें इस वर्ग के सम्पन्न लोग ही सारे लाभ लेंगे।
इससे पहले, 2004 में पांच न्यायाधीशों की पीठ ने फैसला दिया था कि यह अधिसूचित करने का अधिकार सिर्फ राष्ट्रपति को ही है कि संविधान के अनुच्छेद 341 के तहत किस समुदाय को आरक्षण का लाभ मिल सकता है। राज्यों को इसमें किसी भी तरह के संशोधन का अधिकार नहीं है।
कैसे हुई मामले की शुरुआत?
1975 में तत्कालीन पंजाब सरकार ने 25% एससी आरक्षण को दो श्रेणियों में बांट दिया और अधिसूचना जारी की। पहली श्रेणी में केवल वाल्मीकि और मजहबी सिख समुदायों के लिए सीटें आरक्षित की गई। दोनों समुदाय राज्य में सबसे पिछड़े समुदायों में शामिल किया जाता था। आरक्षण नीति के तहत उन्हें शिक्षा और रोजगार में पहली वरीयता दी जानी थी और बाकी के एससी समुदाय को दूसरी श्रेणी में रखा था। पंजाब सरकार की अधिसूचना तीन दशक तक लागू रही।
कानूनी अड़चन तब उत्पन्न हुई...
जब 2004 में पांच न्यायाधीशों की संविधान पीठ ने आंध्र प्रदेश सरकार की तरफ से 2000 में लाए गए इसी तरह के एक कानून को रद्द कर दिया। ईवी चिन्नैया मामले में शीर्ष कोर्ट ने आंध्र प्रदेश अनुसूचित जाति (आरक्षण का युक्तिकरण) अधिनियम, 2000 को समानता के अधिकार का उल्लंघन करार देते हुए रद्द कर दिया। आंध्र प्रदेश ने राज्य में अनुसूचित जाति समुदायों की एक विस्तृत सूची दी थी और यह निर्धारित किया था कि उनमें से किसको आरक्षण का कितना लाभ मिलेगा। कोर्ट ने उप-वर्गीकरण को समानता के अधिकार का उल्लंघन माना। तर्क दिया कि संविधान कुछ जातियों को एक अनुसूची में वर्गीकृत करता है जिनसे अतीत में छूआ-छूत के कारण भेदभाव हुआ। इसलिए इस समूह में एक-दूसरे से अलग व्यवहार नहीं किया जा सकता।
कोर्ट ने संविधान के अनुच्छेद 341 का भी हवाला दिया...जो आरक्षण के उद्देश्य से एससी समुदायों को सूचीबद्ध करने का अधिकार सिर्फ राष्ट्रपति को देता है। पीठ ने इसी आधार पर व्यवस्था दी थी कि इस सूची में किसी तरह के हस्तक्षेप या बदलाव करने का राज्यों को कोई अधिकार नहीं है।
दोनों पक्षों की दलीलें
पंजाब के एडवोकेट जनरल गुरमिंदर सिंह : ईवी चिन्नैया की यह दलील गलत है कि राज्य अनुच्छेद 341 के तहत राष्ट्रपति सूची में शामिल वर्गों में किसी तरह का बदलाव नहीं कर सकते। संविधान का अनुच्छेद 16(4) राज्य को पिछड़े वर्गों को आरक्षण प्रदान करने की अनुमति देता है, जिनका सरकारी सेवाओं में पर्याप्त प्रतिनिधित्व नहीं है। चूंकि यहां वाक्यांश में समानता के बजाय पर्याप्त रूप से शब्द का इस्तेमाल किया गया है। इसलिए राष्ट्रपति सूची में शामिल सभी समुदायों को समान अवसर प्रदान करने में किसी तरह बाध्यता नहीं है।
पंजाब के अतिरिक्त महाधिवक्ता शादान फरासत : संविधान में हाल ही में शामिल अनुच्छेद 342ए यह स्पष्ट करता है कि चिन्नैया मामले में आया फैसला अब लागू नहीं होता। यह प्रावधान खासकर राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों को सामाजिक और आर्थिक रूप से पिछड़े वर्गों की एक सूची निर्धारित करने का अधिकार देता है जो राष्ट्रपति सूची से अलग हो सकती है।
पूर्व अटॉर्नी जनरल केके वेणुगोपाल ने चिन्नैया मामले में बहस के दौरान के अपने अनुभव को साझा करते हुए कहा, उप-वर्गीकरण के बिना समाज का सबसे कमजोर वर्ग पीछे रह जाएगा, और इससे आरक्षण का मूल उद्देश्य ही विफल हो जाएगा।
प्रतिवादियों की ओर से पेश वरिष्ठ अधिवक्ता संजय हेगड़े : राष्ट्रपति सूची में शामिल सभी समुदाय वो हैं जिन्होंने छूआ-छूत का दंश झेला। संविधान सभा ने यह तुलना करने का विकल्प नहीं अपनाया था कि सबसे ज्यादा नुकसान किसको हुआ।
तो कोटे में कोटा राज्य कैसे देंगे, इसका तरीका क्या हो सकता है?
इस मसले पर हमने सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ वकील विराग गुप्ता से बात की। इस बारे में विराग कहते हैं, 'बहुमत के जजों ने फैसले में कहा है कि अनुच्छेद-341 और 342 में अनुसूचित जाति और जनजाति से सम्बन्धित प्रावधान हैं। लेकिन आरक्षण के बारे में अनुच्छेद-15 (4) और 16 (4) में राज्यों को आरक्षण करने के बारे में संवैधानिक शक्ति हासिल है। कोटे के भीतर कोटा देने सिलासिला पिछले 50 सालों से राज्यों में चल रहा है। आन्ध्र प्रदेश में एससी वर्ग को चार हिस्सों में वर्गीकृत किया गया था। तदानुसार ए वर्ग के लिए 1 फीसदी, बी के लिए 7 फीसदी, सी के लिए 6 फीसदी और डी के लिए 1 फीसदी आरक्षण का प्रावधान किया गया। पंजाब में एससी वर्ग के लिए 25 फीसदी आरक्षण का प्रावधान है। वहां पर 2006 के कानून से एससी वर्ग के आरक्षण में वाल्मिकी और मजहबी सिख को 50 फीसदी आरक्षण देने का प्रावधान किया गया। बिहार में 2007 में इसके लिए महादलित आयोग का गठन किया गया। महाराष्ट्र में 3 दर्जन एससी जातियों में महार और मातंग प्रमुख हैं। राजस्थान की 59 एससी जातियों में मेघवाल प्रमुख हैं। पश्चिम बंगाल में राजवंशी सबसे प्रमुख एससी जाति है। गुजरात के 27 एससी जातियों में वनकर प्रमुख हैं।'
विराग कहते हैं, 'सुप्रीम कोर्ट के फैसले के अनुसार एससी/एसटी कानूनी शब्द हैं जिनके दायरे में जातियां आती हैं। उन जातियों के शैक्षणिक, आर्थिक और सामाजिक विकास के आंकड़ों के अनुसार राज्य सरकारें आरक्षण की प्राथमिकता और कोटे के कोटा का निर्धारण कर सकती हैं। जजों ने फैसले में अनेक उदाहरण देकर यह समझाने की कोशिश की है कि सभी वर्गों को आरक्षण के लाभ के लिए कोटे में कोटा जरुरी है और इससे संवैधानिक समानता का मकसद हासिल होगा।'