कट्टरवादिता बनाम राष्ट्रवादिता
ख्यात पाकिस्तानी शायर फैज़ अहमद फैज़ की एक नज़्म 'हम देखेंगे' कुछ समय पहले CAA के विरोध में भारत में हुए आंदोलन के दौरान चर्चा का विषय बनी थी। फ़ैज अहमद फ़ैज को सन 1963 में लेनिन शांति पुरस्कार मिला था और उन्हें सन 1984 में नोबेल पुरस्कार के लिए भी नामित गया था। फैज़ अहमद फैज़ का जन्म भारत विभाजन से पहले 13 फरवरी, 1911 में तत्कालीन पंजाब और आज के पाकिस्तान के सियालकोट जिले हुआ था। CAA विरोधी आंदोलन के दौरान फैज़ की नज़्म एकाएक चर्चा का विषय बन गयी थी, यहाँ तक कि IIT कानपुर में इसकी जांच के लिए एक समिति का भी गठन किया था। इस नज़्म के शब्द हिन्दू विरोधी माने जाते हैं। इस विषय पर अनेक लोगों के अनेक मत हैं। लेकिन 'सब बुत उठवाए जाएँगे' 'बस नाम रहेगा अल्लाह का' जैसे शब्द हिन्दू विरोधी ही माने जायेंगे। क्योंकि हिन्दुओं को मूर्ति पूजक माना जाता है।
फैज़ की इस नज़्म का प्रतिउत्तर प्रो. अरुण दिवाकर नाथ वाजपेई ने एक कविता लिखकर दिया है। प्रो. वाजपेयी वर्तमान समय में छत्तीसगढ़ के अटल बिहारी वाजपेयी विश्वविद्यालय के कुलपति है। साथ ही प्रो. वाजपेयी सुप्रसिद्ध अर्थशास्त्री, लेखक और कवि भी हैं। प्रो. वाजपेयी की ये कविता फैज़ की नज़्म के विरोधियों को खूब पसंद आएगी। प्रो. वाजपेयी की कविता कुछ इस प्रकार है:
हम देखेंगे
हम देखेंगे, हम देखेंगे
जाहिर है के तुम भी देखोगे
जाहिर के जमाना देखेगा,
भौतिकवादी चंदा छुपते,
मदहोश सितारों को झुकते,
अभिमानी मेघों को छटते,
हम देखेंगे…
भारत का भास्कर मुस्काते।
हम देखेंगे…
जाहिर है कि तुम भी देखोगे
जाहिर कि जमाना देखेगा।
हम देखेंगे…
सागर की गहरी लहरों से,
हिमगिरि के ऊँचे शिखरों से,
धरती अंबर की नजरों से.
हम देखेंगे…
भारत के तिरंगे को लहराते।
हम देखेंगे…
जाहिर हैं कि ज़माना देखेगा।
हम देखेंगे।…
संस्कृति से और संस्कारों से,
पर्वो से और त्यौहारों से,
गीतों से और मल्हारों से,
हम देखेंगे…
भारत का राग जगत गाते।।
हम देखेंगे…
जाहिर कि तुम भी देखोगे
जाहिर के जमाना देखेगा।
हम देखेंगे।…
वेदों से और पुराणों से
साहित्य से और विज्ञानों से
जप तप से और अनुसंधानों से
हम देखेंगे…
भारत को विश्व गुरु बनते।
हम देखेंगे…
जाहिर है कि तुम भी देखोगे
जाहिर कि जमाना देखेगा
हम देखेंगे।…
करता जो युग का संचालन
जो वातावरण का स्पंदन
सबसे ऊंचा जो सिंहासन
हम देखेंगे…
भारत को वहीं शोभा पाते।।
हम देखेंगे…
जाहिर के तुम भी देखोगे
जाहिर के जमाना देखेगा
हम देखेंगे…
भारत में लोगों ने फैज़ की नज़्म को लेकर आपत्ति जरुर की थी लेकिन प्रो. वाजपेयी ने यह कविता लिखकर एक नये मंथन या चिंतन का आधार निर्मित कर दिया है। भारतीय संस्कृति और सभ्यता के विरोधियों द्वारा फैलाये गये मिथकों और षड्यंत्रों का समाधान प्रो. वाजपेयी ने जिस तरह से एक उदाहरण प्रस्तुत करके दिया है वह अनुकरणीय है।
- महेंद्र सिंह ठाकुर