- सनातन धर्म - हिंदू धर्म के मूल में जाति व्यवस्था और जातिवाद का कोई स्थान नहीं है।
- जाति व्यवस्था और जातिवाद के षडयंत्र को भस्मसात करने के लिए हमें अपने मूल धर्म ग्रंथों की ओर चलना होगा।
जबलपुर/सनातन धर्म - हिंदू धर्म के मूल में जाति व्यवस्था और जातिवाद का कोई स्थान नहीं है। प्राचीन काल में भारत में आए विदेशी तत्वों, मध्य काल में मुस्लिम आक्राताओं और आधुनिक काल में अंग्रेजों ने भारत में हिन्दुओं का विध्वंस करने के लिए जाति व्यवस्था और जातिवाद को विकसित किया। अंग्रेजों ने ही जातिगत जनगणना कराई थी।स्वाधीनता के उपरांत लोकतांत्रिक व्यवस्था भारत में कायम हुई और फिर सत्ता की प्राप्ति के लिए जाति पांति और धर्म के विभेद को विस्तार दिया गया।सत्ता में संविधान निर्माता डॉ. भीमराव आंबेडकर जी के साथ दोयम दर्जे का व्यवहार किया गया। संविधान में तथाकथित धर्मनिरपेक्ष (पंथनिरपेक्ष) शब्द जोड़े गए। आज तो स्थिति भयानक हो गई है,क्योंकि विघटनकारी शक्तियाँ सनातन में जाति पांति का विभेद उत्पन्न कर सत्ता प्राप्त कर रही हैं जो कि देश के लिए घातक सिद्ध हो रहा है।इसलिए राष्ट्र हित में शत् प्रतिशत मतदान नितांत आवश्यक है।
जाति व्यवस्था और जातिवाद के षडयंत्र को भस्मसात करने के लिए हमें अपने मूल धर्म ग्रंथों की ओर चलना होगा। वेदों,उपनिषदों,महाकाव्यों, श्रीमद्भागवत गीता - जहाँ न तो जाति व्यवस्था का उल्लेख है न ही जातिवाद का। अद्वैत वाद हमारा मूल दर्शन है। "वसुधैव कुटुम्बकम्" हमारा आदर्श है। यहाँ आर्यों के संबंध में स्पष्ट कर देना चाहता हूँ कि आर्य का शाब्दिक अर्थ "श्रेष्ठ जन" है और एक भाषा समूह से जो संस्कृत भाषा - भाषी थे। उनका आदर्श ऋग्वेद के अनुसार "मनुर्भव जनया दैव्यं जनम्" था। इसी संदर्भ के आलोक में "गोंड" शब्द का अर्थ "गुणकारी मानव"अर्थात् "श्रेष्ठ जन" है, उनका आदर्श पारी कुपार लिंगो के "कोया पुनेम" के आलोक में "मानव धर्म था। जिन्हें कालांतर में कुचेष्टा कर जाति तत्व अथवा जाति के रुप में परिभाषित कर अर्थ का अनर्थ निकाला गया है। उक्त मूल ग्रन्थों में वर्ण व्यवस्था की बात की गई है जिसका मूल आधार कर्म है। किसी भी व्यक्ति का वर्ण स्थायी नहीं था वह अपने कर्मों के आधार पर अपना वर्ण चुन सकता था और वही मान्य होता था - इस संबंध में सैकड़ों उदाहरण दे सकता हूँ। यथा - महर्षि वाल्मीकि, ऐतरेय ऋषि, सत्यकाम जाबाल, महर्षि विश्वामित्र, महर्षि वेद व्यास और महात्मा विदुर आदि।विश्व के महान् विद्वानों ने स्वीकार किया है कि उक्त वर्ण व्यवस्था के कारण ही एकमात्र भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति नष्ट नहीं हुई जबकि विश्व कुछ की अन्य सभ्यताएं फली - फूलीं और पतन के गर्त में समा गईं। प्राचीन काल में जम्बूद्वीप - भारतवर्ष 15 देशों का सुंदर समुच्चय था परंतु आर्येतर तत्वों (किरात +पारसीक +ग्रीक +इंडो - ग्रीक - पार्थियन +शक +कुषाण +हूण) ने न केवल इसे विखंडित किया वरन् "वर्ण व्यवस्था" को रूपांतरित कर जाति व्यवस्था, जातिवाद और छुआछूत की भावना में तब्दील कर दिया, जिसे गौतम बुद्ध और महावीर स्वामी ने रोकने का प्रयास किया परंतु बाद के ग्रन्थों में - मसलन् पुराणों और स्मृतियों सहित अन्य ग्रंथों में अपने राजाश्रयों में रह रहे विद्वानों से उक्त आर्येतर तत्वों ने जाति व्यवस्था के संबंध में आमूलचूल परिवर्तन कराए और उनका मूल स्वरुप ही बदल डाला गया। यद्यपि गुप्त काल और हर्षवर्धन के काल में इसे रोकने के प्रयास किए गए और सफलता भी मिली। देवल स्मृति जैंसी पुस्तकें भी लिखी गईं परंतु अरबों एवं तुर्को ने इस्लाम के प्रचार - प्रसार के लिए जाति व्यवस्था और जातिवाद का न केवल दुष्प्रचार किया वरन् बलात् धर्मांतरण कराया जिसे रोकने के लिए "भक्ति आंदोलन" हुआ जिससे हम सभी भलीभाँति परिचित हैं सभी संतों ने पुनः जाति व्यवस्था और जातिवाद को नकार दिया। गुरु नानक जी ने कहा है कि "एक नूर ते सब जग उपज्या कौन भले कौन मंदे"। सब कुछ ठीक ही था परंतु अंग्रेजों ने सर्वाधिक नुकसान किया उन्होंने हमारे मूल धर्म ग्रंथों की जगह बाद के परिवर्तित ग्रंथों को आधार बनाकर हिन्दूओं के धर्म की अपने अनुसार ऊटपटांग व्याख्या की और उसे स्थापित किया उसी से वर्ण व्यवस्था के मूल सिद्धांत को विलोपित कर वर्ण व्यवस्था को जाति व्यवस्था और जातिवाद का आधार दिया जो विष - वृक्ष के रुप में विकसित हुआ। उन्होंने इसे फूट डालो राज्य करो की नीति में शामिल कर लिया। यद्यपि राजा राम मोहन राय, स्वामी दयानंद सरस्वती, स्वामी विवेकानंद, ज्योतिबा फुले, भीमराव आंबेडकर जैंसे अन्य महान् नायकों ने अपना योगदान दिया परंतु अंग्रेजों ने इन प्रयासों को विषाक्त करने के लिए एक राजनैतिक दल को जन्म दिया और जिसका उद्देश्य केवल राजनैतिक ही था, अंग्रेजों का सहयोग कर सत्ता प्राप्त करना। इसलिए जाति व्यवस्था और जातिवाद को समाप्त करने के प्रयास तो छोड़िए वरन् बढ़ाने के प्रयास किए गए। अनुसूचित जाति एवं जनजातियों को अलग से परिभाषित किया जाने लगा - अंग्रेजों के स्वर में स्वर मिलाकर कभी आदिवासी तो कभी वनवासी तो कभी देशज और तो और एक महात्मा ने उन्हें हरिजन और गिरिजन की संज्ञा दे डाली और आगे चलकर सन् 1935 में उन्हें "दलित" कहा जाने लगा - उक्त अवसरवादियों ने ही भारत रत्न डॉ भीमराव आंबेडकर जी के साथ दुर्व्यवहार किया और उन्हें मजबूर किया - इन शब्दों की चर्चा हमारे किसी मूल धर्म ग्रंथों में नहीं की गई है, तो फिर ये कहाँ से आए? क्या ये सत्ता के लिए हिन्दू समाज को विघटित करने की गंभीर साजिश नहीं है? जी हां ये साजिश ही तो है क्योंकि असंतुलित विभाजन स्वीकारने और स्वतंत्रता के बाद एक दल विशेष ने अंग्रेजों की नीति का ही अनुसरण किया है, परंतु अब समय आ गया है बदलाव का और अब नहीं कर पाए तो हम सभी बर्बाद और तबाह हो जाएंगे। तथाकथित जाति व्यवस्था और जातिवाद मुर्दाबाद।सच तो ये कि प्रत्येक हिन्दू प्रतिदिन चारों वर्ण शिरोधार्य करता है - प्रातः साफ - सफाई - शूद्र, अध्ययन - अध्यापन - ब्राम्हण, व्यापार और व्यवसाय - वैश्य, प्रतिरक्षा - क्षत्रिय।विश्व में केवल सनातन ही सर्वसमावेशी है इसलिए सनातन रहेगा तो सब रहेंगे।
अत: भारत की स्वतंत्रता और संप्रभुता को अक्षुण्ण रखने तथा शक्ति संपन्न बनाने के लिए मजबूत सत्ता की महती आवश्यकता होती है, इसलिए राष्ट्र हित में भारत के नागरिक लोकतंत्र के महापर्व के पवित्र यज्ञ में शत् प्रतिशत मतदान कर अपने राष्ट्रत्व का परिचय दें। इस संदर्भ में आदरणीय कैलाश जी भाई साहब का नारा बड़ा ही प्रासंगिक है कि "पहले मतदान, फिर जलपान।"अंत में सारे काम छोड़ दो, सबसे पहले वोट दो।
जय हिंद, जय भारत
डॉ. आनंद सिंह राणा,
इतिहास संकलन समिति महाकौशल प्रांत