×
userImage
Hello
 Home
 Dashboard
 Upload News
 My News
 All Category

 Latest News and Popular Story
 News Terms & Condition
 News Copyright Policy
 Privacy Policy
 Cookies Policy
 Login
 Signup

 Home All Category
Tuesday, Dec 3, 2024,

Article / Special Article / India / Madhya Pradesh / Jabalpur
बलिदान दिवस : अमर बलिदानी टंट्या भील

By  AgcnneduNews...
Mon/Dec 04, 2023, 11:02 AM - IST   0    0
  • ऐतिहासिक और पौराणिक संदर्भों के आलोक में सतयुग में महादेव - बड़ा देव के पुत्र निषाद, जो तीर कमान विद्या में निपुण थे, भील जनजाति के आदि पुरुष के रूप में शिरोधार्य हैं।
  • महारथी टंट्या महिला सशक्तिकरण के संरक्षक थे, इसलिए उन्हें टंट्या मामा के नाम से भी जाना जाता है।
  • वर्तमान युग के हर कालखंड में हुए स्वातंत्र्यसमर में भील जनजाति का अति विशिष्ट योगदान रहा है।
Jabalpur/

जबलपुर/भारत के गौरवशाली इतिहास की परंपरा में भील जनजाति का अद्भुत और अद्वितीय माहात्म्य रहा है। ऐतिहासिक और पौराणिक संदर्भों के आलोक में सतयुग में महादेव - बड़ा देव के पुत्र निषाद, जो तीर कमान विद्या में निपुण थे, भील जनजाति के आदि पुरुष के रूप में शिरोधार्य हैं। त्रेता में भगवान श्री राम के साथ निषादराज गुह और द्वापर युग में धनुर्धर अर्जुन की परीक्षा के लिए महादेव किरात भील के रूप में अवतरित हुए थे, वहीं वर्तमान युग के हर कालखंड में हुए स्वातंत्र्यसमर में भील जनजाति का अति विशिष्ट योगदान रहा है। प्राचीन काल में सिकंदर को शिवी जनपद के भीलों ने पराजित किया था, मध्यकाल में महाराणा प्रताप के साथ राणा पूंजा भील ने अकबर के विरुद्ध भयंकर संग्राम किया था और मेवाड़ से खदेड़ दिया था।  इसी महान् परंपरा के अनुक्रम में आधुनिक भारत में महा महारथी टंट्या भील ने अंग्रेजी शासन को ध्वस्त करने के लिए 12 वर्ष तक लगातार 24 युद्ध लड़े और अपराजेय रहे, उन्हें सुनियोजित षड्यंत्र कर ही गिरफ्तार किया गया था। महारथी टंट्या महिला सशक्तिकरण के संरक्षक थे, इसलिए उन्हें टंट्या मामा के नाम से भी जाना जाता है। महारथी टंट्या गरीबों के मसीहा थे, इसलिए उन्हें भगवान का दर्जा भी प्राप्त हुआ। कतिपय पश्चिमी लेखक और अंग्रेज अधिकारी उन्हें भारत के रॉबिनहुड के नाम से रेखांकित करते हैं। भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के अमर बलिदानी महारथी टंट्या भील की कर्मभूमि मध्य भारत मध्य प्रांत एवं मुंबई प्रेसिडेंसी के क्षेत्र थे, जहाँ उन्होंने ब्रिटानिया सरकार के विरुद्ध स्वतंत्रता संग्राम का शंखनाद किया था। महारथी टंट्या का जन्म पूर्वी निमाड़ (खंडवा जिले) के पंधाना तहसील के बड़दा (बडाडा)गांव में 1840 में हुआ था, वनवासी संगठनों का मानना है कि तिथि 26 जनवरी थी। महारथी टंट्या के पिता का नाम श्रीयुत भाऊ सिंह था और उनकी पत्नी का नाम कागज बाई था। टंट्या शब्द का अर्थ विभिन्न इतिहासकारों ने प्रकारांतर से अलग-अलग बताया है परंतु वास्तव में टंट्या का शाब्दिक अर्थ है" संघर्ष" और इसी नाम को आगे जाकर महारथी टंट्या ने सार्थक किया। बाल्यकाल से ही महारथी टंट्या कुशाग्र बुद्धि के थे तीर कमान लाठी और गोफन में प्रशिक्षण प्राप्त कर महारत हासिल कर ली थी। दावा या फलिया उनका मुख्य हथियार था और उन्होंने बंदूक चलाना भी भली-भांति सीख लिया था। धनुर्विधा में महारत हासिल कर ली थी। महारथी टंट्या का संबंध सन् 1857 के स्वतंत्रता संग्राम से भी है जिसमें वे तात्या टोपे के साथ रहे और उन्हीं से उन्होंने गुरिल्ला युद्ध पद्धति में महारत हासिल की थी। बाल्यकाल में ही में ही उनके पिता भाऊ सिंह ने आमजा माता के समक्ष महारथी टंट्या को शपथ दिलाई थी, कि वह बेटियों बहुओं और बहनों की सदैव रक्षा करेगा, आगे चलकर टंट्या भील ने 300 निर्धन कन्याओं का विवाह कराया और महिलाओं के उत्थान के लिए अनेक कार्य किए इसलिए उन्हें टंट्या मामा भी कहा जाता है। महारथी टंट्या के पिता की जल्दी मृत्यु हो गई। सारी जिम्मेदारी महारथी टंट्या पर आ गई फसल ठीक से आने के कारण वे 4 साल का लगान जमा नहीं कर सके, इसलिए उन्हें मालगुजार ने बेदखल कर दिया इस मामले को लेकर वह अपने पिता के मित्र शिवा पाटिल के पास गए क्योंकि वह जमीन शिवा पाटिल और भाऊ सिंह दोनों ने मिलकर खरीदी थी, परंतु शिवा पाटिल ने जमीन पर अधिकार देने से मना कर दिया। महारथी टंट्या ने अंग्रेजी अदालत में मुकदमा दायर किया परंतु अंग्रेजी न्याय व्यवस्था ने झूठे साक्ष्यों के आधार पर महारथी टंट्या का प्रकरण समाप्त कर दिया। न्याय न मिलने के कारण महारथी टंट्या के पास संग्राम के अलावा कोई अन्य मार्ग नहीं बचा था इसलिए एक दिन उन्होंने अपने साथियों के साथ शिवा के सभी आदमियों हमला बोल दिया और अपनी भूमि को कब्जे से मुक्त कराया।इसी समय अंग्रेज सरकार द्वारा उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया और 1 साल की कठोर सजा मिली जहां उन्होंने कैदियों पर अंग्रेजों के अत्याचार को देखा और उनके मन में स्वतंत्रता संग्राम की इच्छा बलवती हुई ।

सन 1857 के महान स्वतंत्रता संग्राम के उपरांत ईस्ट इंडिया कंपनी का शासन समाप्त हुआ और सन् 1858 में भारत का शासन ब्रिटिश क्रॉउन के अधीन आ गया इसके उपरांत ब्रिटिश सरकार का अत्याचार और अनाचार बढ़ गया ब्रिटिश सरकार के साथ मिलकर मालगुजार और साहूकारों ने भी जनसाधारण का विभिन्न प्रकार से शोषण करना आरंभ किया तो महारथी टंट्या ने वनवासियों और पीड़ितों को एकत्रित कर अंग्रेजों के विरुद्ध स्वतंत्रता संग्राम छेड़ दिया। 

सन् 1876 से  महारथी टंट्या भील का ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध विधिवत् स्वतंत्रता संग्राम का शुभारंभ हुआ 20 नवंबर 1878 को उन्हें धोखे से पकड़कर खंडवा जेल में डाल दिया गया परंतु 24 नवंबर 1878 को रात में वह अपने साथियों के साथ दीवार लांघकर कर मुक्त हो गए। इसके बाद उन्होंने संगठन को मजबूत किया जिसमें जिसमें बिजानिया भील, दौलिया, मोडिया और हिरिया जैसे साथी मिले और उसी के साथ महारथी टंट्या ने ब्रिटिश सरकार के समानांतर 1700 गांव में सरकार चलाना आरंभ कर दी। महारथी टंट्या ने एक विशेष दस्ता "टंट्या पुलिस" के नाम से गठित किया और साथ ही चलित न्यायालय बनाए जिसमें न्याय किया जाता था। महारथी टंट्या का 12 वर्षीय स्वतंत्रता संग्राम रहा है जिसमें अंतिम 7 वर्ष बहुत ही महत्वपूर्ण हैं क्योंकि ब्रिटिश सरकार को स्पेशल टास्क फोर्स गठित करनी पड़ी थी इस स्पेशल टास्क फोर्स के कमांडर एस. ब्रुक की एक हमले में महारथी टंट्या ने नाक काट दी थी। 

महारथी टंट्या ने ब्रिटिश सरकार से 24 बार संघर्ष किया और वह विजयी रहे इसके साथ ही ब्रिटिश सरकार के खजाने और जमीदारों तथा माल गुजारों से सभी निर्धन वर्गों के लिए के लिए 400 बार  धनराशि हस्तगत कर उन्हें वितरित की।अकाल के समय भी उन्होंने किसी को भूख से मरने नहीं दिया इसके उन्होंने कई बार अंग्रेजी सरकार द्वारा रेल से भेजे जा रहे अनाज को हस्तगत किया। यह बात प्रचलित हो गई थी, कि महारथी टंट्या के राज में कोई भूखा नहीं सो सकेगा। सन् 1880 के बाद मध्य प्रांत, मध्य भारत और मुंबई प्रेसिडेंसी के क्षेत्रों में महारथी टंट्या चमत्कारिक स्वरूप के रूप में स्थापित हो गए थे, इसलिए उन्हें को भगवान का दर्जा दिया जाने लगा था, और अब महारथी टंट्या जननायक बन गए थे। तांतिया भील - हिस्ट्री ऑफ़ एम पी पुलिस के पृष्ठ क्रमांक 101 एवं 103 के हवाले से एक बार  महारथी टंट्या और बिजानिया को गिरफ्तार करके जबलपुर सेंट्रल जेल लाया गया परंतु दोनों पुनः भागने निकले परंतु दुर्भाग्य से बिजानिया, दौलिया मोडिया और हिरिया पकड़े गए और उन्हें फांसी दे दी गई जिससे महारथी टंट्या का संगठन कमजोर हो गया परंतु फिर भी ब्रिटिश सरकार उन्हें गिरफ्तार नहीं कर सकी। ब्रिटिश सरकार ने महारथी टंट्या को पकड़ने के लिए उनकी मुंह बोली बहन के पति गणपत सिंह का सहयोग लिया और 11 अगस्त 1889 को रक्षा बंधन के दिन सुनियोजित षड्यंत्र के चलते जब राखी बंधवाने के लिए टंट्या अपनी बहन के यहां पहुंचे तो उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। महारथी टंट्या को पहले खंडवा जेल में रखा गया फिर उन्हें जबलपुर सेंट्रल जेल (वर्तमान नेताजी सुभाष चंद्र बोस केन्द्रीय जेल) में स्थानांतरित कर दिया गया। जबलपुर के सत्र न्यायालय में महारथी टंट्या पर विभिन्न आपराधिक मामलों के साथ देशद्रोह का मुकदमा प्रारंभ हुआ। गौरतलब है कि जब महारथी टंट्या को जबलपुर लाया गया तो हजारों की संख्या में लोग उनके दर्शन के लिए एकत्रित हुए थे,इसलिए आगे चलकर सेंट्रल जेल क्षेत्र में कर्फ्यू की घोषणा कर दी गई थी। अंततः महारथी टंट्या भील को 19 अक्टूबर 1889 में फांसी की सजा सुनाई गई। संयुक्त राज्य अमेरिका के न्यूयॉर्क टाइम्स समाचार पत्र में तो 10 नवंबर 1889 को टंट्या भील की गिरफ्तारी पर एक खबर प्रकाशित की जिसमें उन्हें भारत के रॉबिनहुड के रूप में रेखांकित किया गया था। किया गया था। फांसी की सजा के विरुद्ध  मर्सी पिटिशन दाखिल की गई परंतु 25 नवंबर 1889 को मर्सी पिटीशन खारिज कर दी गई और 4 दिसंबर 1889 को महारथी टंट्या नेताजी सुभाष चंद्र बोस केंद्रीय जेल में फांसी पर लटका दिया गया। फांसी के उपरांत उनके मृत शरीर को पातालपानी के कालाकुंड रेलवे ट्रैक पर फेंक दिया गया  ताकि  ब्रिटिश सरकार की दहशत और सर्वोच्चता बनी रहे। महारथी टंट्या का पार्थिव शरीर तो नष्ट हो गया परंतु वह अमर हो गए। टंट्या मामा का मंदिर भी बनवाया गया।यह प्रचलित है कि आज भी पातालपानी से जो भी रेल निकलती है वह थोड़ा रुकती है और टंट्या मामा (भगवान टंट्या के रुप में) को प्रणाम (सलामी) किया जाता है। यह दुर्भाग्यपूर्ण ही है कि ऐसे महान स्वतंत्रता संग्राम सेनानी महारथी टंट्या का पूर्ववर्ती इतिहास में पश्चिमी और परजीवी इतिहासकारों ने लुटेरा और डकैत  के रूप में उल्लेख किया गया है जो बेहद शर्मनाक ही नहीं वरन दुखद है और तो और वर्तमान संदर्भ में राजनीतिक उल्लू सीधा करने एवं "फूट डालो राज्य करो नीति" की पुनर्स्थापना करने के लिए भारत जोड़ो यात्रा के प्रवर्तक राउल विंची अपने दल साथ महारथी टंट्या मामा (4 दिसंबर सन् 1889 ) और भगवान् बिरसा मुंडा (9 जून सन् 1900) के बलिदान में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के हाथ होने का आरोप लगाया था, यह घृणित है और मानसिक दिवालियापन का प्रतीक है, जबकि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना सन् 1925 में हुई थी । भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास लेखन की विडंबना यही रही है कि ब्रिटानिया शासन के विरुद्ध जितने भी सशस्त्र संघर्ष हुए हैं, उन्हें विद्रोह, गदर, लूट, डकैती और आतंकवाद की संज्ञा दी गई है, जबकि वास्तविकता यह है कि सभी सशस्त्र संघर्ष - स्वतंत्रता संग्राम, पवित्र यज्ञ एवं अनुष्ठान थे,और उनके योद्धा, महान् स्वतंत्रता संग्राम सेनानी थे। एतदर्थ अब स्वाधीनता के अमृत महोत्सव के चलते इतिहास का पुनर्लेखन हो रहा है और इन गुमनाम बलिदानियों की अमर गाथाओं को इतिहास में समुचित स्थान मिल रहा है। अमृत काल का मूल उद्देश्य भी यही है कि है पूर्व के त्रुटिपूर्ण मत प्रवाह (नैरेटिव) को सुधारा जा सके और गुमनाम बलिदानियों को इतिहास में समुचित स्थान दिया जाए ताकि वर्तमान और भावी पीढ़ी को गर्व और गौरव की अनुभूति हो और राष्ट्रवाद की भावना पल्लवित पुष्पित होती रहे और यही भावना प्रबल हो कि मैं रहूं या ना रहूं मेरा देश यह भारत रहना चाहिए।

डाॅ. आनंद सिंह राणा,

विभागाध्यक्ष इतिहास, श्रीजानकीरमण महाविद्यालय एवं इतिहास संकलन समिति महाकोशल प्रांत, जबलपुर (म. प्र.)

By continuing to use this website, you agree to our cookie policy. Learn more Ok